भाषा भारती (कक्षा 8वीं)
-: अभ्यास :-
बोध प्रश्न
प्रश्न 1. निम्नलिखित शब्दों के अर्थ शब्दकोश से खोजकर लिखिए-
उत्तर-
दुर्भाग्य = बुरा भाग्य;
आत्महीनता = मन को हीन भावना;
एकाग्रता = तल्लीनता;
क्षमता = योग्यता, सामर्थ्य;
विश्वविख्यात = संसार में प्रसिद्ध तल्लीनता किसी काम में दत्तचित्त हो जाना;
अभंग = अटूट, अखण्ड;
सुगमता = आसानी;
दुविधा = असमंजस;
यथापूर्व = पहले की तरह;
अविचल = स्थिर, दृढ़;
सूक्ति = अच्छा कथन, सुभाषित;
अखण्ड = जिसके टुकड़े न हो सकें, अटूट, समग्र रूप से;
मर्सिया = शोक गीत ।
प्रश्न 2. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में लिखिए -
(क) बाली को क्या वरदान प्राप्त था ?
उत्तर- बाली को ऐसा वरदान प्राप्त था कि जो भी उसके सामने आता, उसकी आधी ताकत उसमें आ जाती थी। इस कारण बाली अपने सामने आये हुए व्यक्ति को आसानी से पछाड़ देता था।
(ख) राम बाली के सामने आकर क्यों नहीं लड़े ?
उत्तर- बाली को अपने शत्रु (विरोधी) के आधे बल को खींच लेने का वरदान प्राप्त था। अतः राम उसके सामने आकर नहीं लड़े। यह वरदान बाली को शंकर भगवान ने दिया था। राम भगवान शंकर के वरदान का सम्मान करते थे।
(ग) कृष्ण ने महाभारत में सर्वोत्तम काम क्या किया ?
उत्तर- महाभारत में कृष्ण ने न्याय के साथ पाण्डव पक्ष का सहयोग करते हुए निर्वासित पाण्डवों को उनका अधिकार प्राप्त करवाया। उनमें आत्मविश्वास पैदा किया।
प्रश्न 3. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर विस्तार से लिखिए-
(क) सामने वाले की आधी ताकत अपने में खींच लेने की शक्ति हमें सबमें हैं। कैसे?
उत्तर- सामने वाले की आधी ताकत अपने में खींच लेने की शक्ति हम सब में है। यह शक्ति आत्मविश्वास की है। यह शक्ति हम सबको प्राप्त है, परन्तु हम सबको अपनी इस आत्मशक्ति की पहचान नहीं है और न उसका उपयोग ही किया है। इस आत्मशक्ति का विकास विश्वास से होता है। हमें अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपनी सामर्थ्य में विश्वास पैदा करना होगा। हम अपने विरोधियों से सदा पिटते रहे हैं, क्योंकि उनके द्वारा पीटे जाने को हमने अपने लिए अनिवार्य मान लिया। यह सब इसलिए हुआ कि हमारे अन्दर कायरता और आत्महीनता ने स्थान बना लिया है जिससे हम डरपोक हो गये। अच्छे संस्कार हमसे दूर हो गये। बुरे संस्कारों का प्रभाव ऐसा पड़ा कि हम अपने बल की सही नापतौल नहीं कर सके। परिणाम यह हुआ कि विरोधियों को हमने अपनी अपेक्षा ताकतवर मान लिया, परन्तु आत्महीनता और कुसंस्कारों से छुटकारा प्राप्त करें और आत्मविश्वास से भरे आत्मबल के द्वारा हम अपनी विरोधी की आधी शक्ति अपने में खींच सकते हैं।
(ख) लेखक ने 'हेलन केलर' का उदाहरण देकर हमें क्या समझाना चाहा है ?
उत्तर- हेलन केलर एक प्रसिद्ध और उच्च कोटि की विचारक थीं। उन्होंने अपनी एक सूक्ति में कहा था कि हमें जब सफलता प्राप्त होती है तो उससे हमें सुख मिलता है, परन्तु लक्ष्य प्राप्ति में विफल होना निश्चय ही सुख के द्वार के बन्द होने के समान है। हम उस सफलता के न मिलने पर निराश और हतोत्साहित हो उठते हैं परन्तु उस निराशा की दशा में हम उत्साह से रहित हो जाते हैं। आत्मशक्ति और लक्ष्य प्राप्ति की सामर्थ्य से अपने विश्वास को खो बैठते हैं जबकि होना यह चाहिए कि उद्देश्य प्राप्ति हेतु अपने अन्दर की शक्ति को विकसित करना चाहिए और उसके प्रति मजबूत श्रद्धा और विश्वास रखना चाहिए। एक बार विफल होने पर हतोत्साहित नहीं होना चाहिए। सफलता पाने तक अपने प्रयास (कोशिश) चालू रखने चाहिए।
(ग) "आत्मविश्वास के बूते पर जीवन में सब कुछ करना संभव है," किसी एक महापुरुष का उदाहरण देते हुए उक्त कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर- आत्मविश्वास की ताकत कठिनाई पर विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य देती है। आत्मबल के विकास से हम सफलता के मार्ग पर आगे ही आगे बढ़ते जाते हैं। अपने आत्मबल के द्वारा मनुष्य अवश्य ही भाग्यवान बन जाता है। अतः भाग्यवान वहीं है जो उचित दिशा में अपने कर्त्तव्य का पालन करता है और अपने लक्ष्य की साधना में अपनी सामर्थ्य और क्षमता में पूरा विश्वास रखता है। मन में सदा अच्छे शुभ विचारों को स्थान दीजिए। हमें सफलता और सौभाग्य दोनों हो प्राप्त होंगे। निराशा और उत्साहहीनता मनुष्य को आत्मबल से हीन बनाती है। जीवन सुख-दुःख के उतार-चढ़ाव से युक्त है। हम सदा उतार (दुःख) की बातें ही नहीं सोचते रहें। इन दुःखों का क्या कारण है, जीवन में उत्तार क्यों आया-इस पर विचार करना होगा और चढ़ाव (उन्नति) के उपाय करते हुए ऊँचे भावों से युक्त मन को मजबूती देते रहना चाहिए। अन्त में सुख का द्वार अवश्य खुलेगा-जो जीवन की सफलता में छिपा हुआ है। विजयमाला उन्हें अर्पित की जाती है जो चुनौतियों का मुकाबला करते हैं और सफल होते हैं।
हमारे समक्ष नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का उदाहरण है, जिन्होंने अपने जीवन में सिर्फ चुनौतियों को ही चुना और सफलताओं के शिखर पर पहुँचते रहे। उनमें अटूट आत्मविश्वास था। इसके बल पर उन्होंने अपने विरोधियों की प्रत्येक कुचाल और कुचक्र को नष्ट किया। जीवन संघर्ष में सफलता के लिए अपनी क्षमता और सामर्थ्य में अखण्ड विश्वास होना चाहिए। इसके कारण जीवन में सब कुछ किया जाना सम्भव होता है।
प्रश्न 4. नीचे लिखे गद्यांशों की प्रसंग देते हुए व्याख्या कीजिए-
(क) जो लोग हमेशा उतार की ही बातें सोचते हैं, वे उन लोगों की तरह है। जो कूड़ाघरों के पास कुर्सी बिछाकर बैठ जाते हैं और शहर की गन्दगी को गाली देते हैं।
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'भाषा-भारती' के 'आत्मविश्वास' नामक पाठ से अवतरित है। इसके लेखक कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' हैं।
प्रसंग- लेखक के अनुसार हतोत्साहित और निराश व्यक्ति ही सदा अवनति (कष्ट) की बातें सोचा करते हैं।
व्याख्या- जिन लोगों में किसी उद्देश्य को प्राप्त करने का उत्साह नहीं होता और सदा निराशापूर्ण भावनाओं में ही डूबे रहते हैं, वे जीवन में उतार (अवनति) से प्राप्त दुःख की ही बातें करते रहते हैं। वे कभी भी उन्नति (चढ़ाव) के सुख की बात सोचते ही नहीं। अपने अन्दर की शक्ति और जीवन के लक्ष्य के प्रति श्रद्धा समाप्त कर बैठते हैं। वे कूड़ाघर के अन्दर पड़े कूड़े के समान निम्नकोटि की विचारधारा से युक्त होते हैं। वे अपनी दूषित विचारधारा को संस्कारित नहीं कर सकते। कूड़ेघर की गन्दगी उस समय ही हटेगी जब गन्दगी को एकत्र करने वाले उसे वहाँ से हटायेंगे। आलसी और कुसंस्कारित व्यक्तियों की निठल्ली बातें (गालियाँ) उनके लिए कभी भी लाभकारी नहीं हो सकेंगी।
(ख) जब कोई विरोधी हमारे सामने आता है तो हम अपनी आत्महीनता से, कायरता से, कुसंस्कार से, आत्मविश्वास की कमी से विरोधी का और अपना बल तौले बिना ही उसे अपने से शक्तिशाली मान लेते हैं।
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'भाषा-भारती' के 'आत्मविश्वास' नामक पाठ से अवतरित है। इसके लेखक कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' हैं।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बताया है कि आत्मविश्वास की कमी के कारण मनुष्य विरोधी को अपनी अपेक्षा अधिक ताकतवर मान लेता है।
व्याख्या- जब कोई विरोधी व्यक्ति अपने सामने आता है, तो हमारे मन में एक हीनभावना पैदा हो जाती है। इस हीनता की भावना का कारण होता है, हमारे अन्दर भरोसे की कमी; जिससे हम कायर बनने लगते हैं। यह सब बुरे संस्कारों के कारण होता है। अपनी क्षमताओं पर विश्वास न होने से हम अपने विरोधी को अपने आप से अधिक शक्तिशाली मान लेते हैं। हम अपने बल की नापतौल भी नहीं करते हैं। तात्पर्य यह है कि हम स्वयं अपने आप पर विश्वास खो बैठते हैं।
प्रश्न 5. निम्नलिखित वाक्यों का भाव स्पष्ट कीजिए-
(क) सफलता की, विजय की, उन्नति की कुंजी अविचल श्रद्धा ही है।
भावार्थ- हमारे अंदर उद्देश्य (लक्ष्य) के प्रति अटूट विश्वास है तो निश्चित ही हम अपने उद्देश्य में सफल होते हैं किसी भी चुनौती पर विजय प्राप्त करते हैं तथा लगातार उन्नति प्राप्त करते जाते हैं अतः अटूट श्रद्धा (विश्वास) ही उपाय है- सफलता का, संघर्ष में विजय का जीवन में उन्नति प्राप्त करने का।
(ख) हम अपनी सोच के कारण ही सफल, असफल होते हैं।
भावार्थ- हम अपनी सोच के कारण ही सफलता के सुख का और असफलता के दुख का भोग करते हैं। सफलता की सोच आशावादी और आत्मफलता की सोच निराशावादी होती है। अपने उद्देश्य के प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास हमें सफल बनाता है जबकि इसके विपरीत हम हतोत्साहित होकर असफल होते हैं। यह सब हमारी सोच पर आश्रित है।
(ग) हममें आत्मविश्वास हो तो इससे हम विरोधी को आत्महीन कर सकते हैं।
भावार्थ- आत्मविश्वास होने से मनुष्य उत्साहपूर्वक अपने लक्ष्य में सफल होता है, जिसके द्वारा वह अपने दुश्मनों को आत्मबल से रहित बना देता है। साधनहीन पांडवों ने अपने आत्मबल से कौरवों को निराश और बलहीन कर दिया था।
भाषा-अध्ययन
प्रश्न 1. निम्नलिखित शब्दों का शुद्ध उच्चारण कीजिए-
दुर्भाग्य, शक्तिशाली, आत्महीन, सर्वोत्तम, निश्चित, हतोत्साहियों।
उत्तर- विद्यार्थी उपर्युक्त शब्दों को ठीक-ठीक पढ़कर उनका शुद्ध उच्चारण करने का अभ्यास करें।
प्रश्न 2. 'जीवन में उतार भी हैं और चढ़ाव भी'- इस वाक्य में 'उतार' और 'चढ़ाव' परस्पर विलोम शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इसी प्रकार एक ही वाक्य में निम्नलिखित शब्दों का प्रयोग कीजिए-
भला-बुरा, दाता-याचक, सपूत-कपूत, निश्चित- अनिश्चित, भाग्यवान-भाग्यहीन, पाप-पुण्य, सुख-दुःख।
उत्तर- (1) व्यक्ति को अपना भला-बुरा समझकर किसी काम को करना चाहिए।
(2) ईश्वर और भक्त की स्थिति दाता और याचक के समान होती है।
(3) सपूत और कपूत के लिए धन संचय करना व्यर्थ है।
(4) निश्चित और अनिश्चित की दशा मनुष्य में दुविधा पैदा करती है।
(5) मनुष्य अपनी सोच से स्वयं को भाग्यवान और भाग्यहीन समझ बैठता है।
(6) पाप-पुण्य की परिभाषा परिस्थितिगत होती है।
(7) सुख-दुःख मन के विकल्प होते हैं।
प्रश्न 3. निम्नलिखित शब्दों के स्थान पर हिन्दी मानक शब्द लिखिए-
ताकत, विजिटिंग कार्ड, इशारा, मर्सिया।
उत्तर- ताकत = बल;
विजिटिंग कार्ड = पहचान पत्र; वह कार्ड (पत्र) जिसमें स्वयं का परिचय रहता है;
इशारा = संकेत;
मर्सिया = शोक-गीत।
प्रश्न 4. निम्नलिखित शब्दों में प्रयुक्त प्रत्यय और उपसर्ग पहचान करके अलग-अलग कीजिए-
तल्लीन, दुर्भाग्य, शक्तिशाली, कायरता, एकाग्रता, खण्डित, अभागा।
उत्तर-
तल्लीन = तत् (उपसर्ग) + लीन
दुर्भाग्य = दुर् (उपसर्ग) + भाग्य
अभागा = अ (उपसर्ग) + भागा
शक्तिशाली = शक्ति + शाली (प्रत्यय)
कायरता = कायर + ता (प्रत्यय)
एकाग्रता = एकाग्र + ता (प्रत्यय)
खण्डित = खण्ड + इत (प्रत्यय)
प्रश्न 5. निम्नलिखित सामासिक पदों का समास विग्रह करते हुए उनमें निहित समास पहचान कर लिखिए-
आत्मविश्वास, कूड़ाघर, खन्दक-खाइयों, शक्तिहीन, यथापूर्व, विश्वविख्यात।
उत्तर-
क्र. | सामासिक पद | समास-विग्रह | समास का नाम |
---|---|---|---|
1. | आत्मविश्वास | आत्मा में विश्वास | तत्पुरुष |
2. | कूड़ाघर | कूड़ा का घर | तत्पुरुष |
3. | खंदक-खाइयों | खंदक और खाइयों | द्वंद्व |
4. | शक्तिहीन | शक्ति से हीन | तत्पुरुष |
5. | यथापूर्व | पूर्व की तरह | अव्ययीभाव |
6. | विश्वविख्यात | विश्व में विख्यात | तत्पुरुष |
प्रश्न 6. नीचे लिखे गद्यांश को पढ़कर प्रश्नों के उत्तर लिखिए-
काँच के एक विशाल महल में एक भटका हुआ कुत्ता घुस गया। इस महल में वह जिधर भी देखता, उधर ही उसे कुत्ते दिखाई देते थे। उसने उन कुत्तों को देखकर सोचा कि यहाँ सभी कुत्ते उस पर टूट पड़ेंगे और उसे मार डालेंगे। अपनी शान दिखाने के लिए जब उसने भौंकना शुरू किया तब उसके चारों और कुत्ते भोंकते सुनाई दिये। उसका दिल धड़कने लगा और बुरी तरह घबरा गया। वहाँ उन कुत्तों पर झपटा। तब उसने देखा कि वह कुत्ते भी उस पर झपट रहे हैं। वह जोर-जोर से भौंका, कूदा किंतु शीघ्र ही बेहोश होकर गिर पड़ा।
(क) उपयुक्त गद्यांश का शीर्षक लिखिए।
उत्तर - 1. काँच का महल
2. मूर्ख कुत्ता।
(ख) इस गद्यांश में प्रयुक्त मुहावरे छाँटिए और अपने वाक्यों में प्रयोग कीजिए।
उत्तर -
प्रयुक्त मुहावरे -
(1) भटका हुआ
(2) टूट पड़ना
(3) शान दिखाना
(4) दिल धड़कना
(5) घबरा जाना
(6) झटपट पकड़ना।
वाक्य प्रयोग -
(1) मार्ग से भटका हुआ व्यक्ति देर में अपने स्थान पर पहुंचता है।
(2) राणा की सेना अपने शत्रुओं पर टूट पड़ी।
(3) अपनी झूठी शान दिखाना मँहगा पड़ता है।
(4) परीक्षा के दिनों में मेरा दिल धड़कने लगता है।
(5) अचानक आए समुद्री तूफान से नाविक घबरा गए।
(6) भूखे भेड़ियों की तरह सैनिक अपने शत्रुओं पर झपट पड़े।
(ग) महल में कुत्ते को अपने चारों ओर कुत्ते क्यों दिखाई दे रहे थे ?
उत्तर - महल काँच से बना हुआ था। काँच की दीवारों पर उस कुत्ते को अपना प्रतिबिंब दिखाई दे रहा थे।
(घ) कुत्ते ने भौंकना क्यों शुरू किया ?
उत्तर- अपने प्रतिबिंब को दूसरे कुत्ते समझकर उसने भौंकना शुरू कर दिया।
(ड) उपयुक्त गद्यांश में से साधारण वाक्य, मिश्रित वाक्य और संयुक्त वाक्य छाँटकर लिखिए।
उत्तर -
साधारण वाक्य -
(1) काँच के एक विशाल महल में एक भटका हुआ कुत्ता घुस गया।
(2) वह उन कुत्तों पर झपटा।
मिश्रित वाक्य -
(1) एक महल में वह जिधर भी देखता. उधर ही उसे कुत्ते दिखाई देते थे।
(2) अपनी शान दिखाने के लिए जब उसने भौंकना शुरू किया तब उसे चारों और कुत्ते भौंकते सुनाई दिये।
(3) तब उसने देखा कि वह कुत्ते भी उस पर झपट रहे हैं।
संयुक्त वाक्य -
(1) उसका दिल धड़कने लगा और वह बुरी तरह घबरा गया।
(2) वह जोर-जोर से भौंका, कूदा किंतु शीघ्र ही बेहोश होकर गिर पड़ा।
-: परीक्षापयोगी गद्यांशों की व्याख्या :-
(1) सच बात यह है कि जब कोई विरोधी हमारे सामने आता है, तो हम अपनी आत्महीनता से, कायरता से, कुसंस्कार से, आत्मविश्वास की कमी से, विरोधी का और अपना बल तोले बिना ही उसे अपने से शक्तिशाली मान लेते हैं।
शब्दार्थ- आत्महीनता = मन की हीन भावना; कायरता = डरपोकपन; कुसंस्कार = बुरे संस्कार; आत्मविश्वास = अपने आप पर भरोसाः शक्तिशाली = ताकतवर ।
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक 'भाषा-भारती' के 'आत्मविश्वास' नामक पाठ से अवतरित है। इसके लेखक कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' हैं।
प्रसंग- प्रस्तुत गद्यांश में लेखक ने बताया है कि आत्मविश्वास की कमी के कारण मनुष्य विरोधी को अपनी अपेक्षा अधिक ताकतवर मान लेता है।
व्याख्या- लेखक का मत सत्य लगता है कि जब कोई विरोधी व्यक्ति अपने सामने आता है, तो हमारे मन में एक हीनभावना पैदा हो जाती है। इस हीनता की भावना का कारण होता है, हमारे अन्दर भरोसे की कमी; जिससे हम कायर बनने लगते हैं। यह सब बुरे संस्कारों के कारण होता है। अपनी क्षमताओं पर विश्वास न होने से हम अपने विरोधी को अपने आप से अधिक शक्तिशाली मान लेते हैं। हम अपने बल की नापतौल भी नहीं करते हैं। तात्पर्य यह है कि हम स्वयं अपने आप पर विश्वास खो बैठते हैं।
(2) आत्मविश्वास की सबसे बड़ी दुश्मन है दुविधा। दुविधा एकाग्रता को नष्ट कर देती है। आदमी की शक्ति को बाँट देती है। आधा इधर और आधा उधर। बस, इस तरह आदमी खण्डित हो जाता है।
शब्दार्थ- दुश्मन = शत्रु; दुविधा = असमंजस; एकाग्रता = तल्लीनता; बाँट = विभाजन ।
सन्दर्भ- पूर्व की तरह।
प्रसंग- लेखक ने दुविधा को ही आत्मविश्वास का सबसे बड़ा दुश्मन बताया है।
व्याख्या- लेखक कहता है कि मनुष्य के अन्दर यदि असमंजस अथवा सन्देह का भाव पैदा हो जाता है, तो आत्मविश्वास की भावना समाप्त होने लगती है। । अतः की अवस्था मनुष्य में अपने ऊपर भरोसे को उत्पन्न नहीं होने देती। यह अवस्था ही उसको दुश्मन (शत्रु) बन जाती है। मनुष्य में आत्मविश्वास की शक्ति की चाँट देती है जिससे वह सोचने लगता है कि वह अमुक कार्य को करने में सफल होगा अथवा असफल। उसके अन्दर पक्का निर्णय लेने की क्षमता समाप्त हो जाती है। यह किंकर्तव्यविमूढ़ (दुविधाग्रस्त) हो जाता है। कार्य में सफल अथवा असफल होने सम्बन्धी दो चित्तत्ता (दुविधा) मनुष्य के अन्दर से तल्लीनता की भावना को नष्ट कर देती है और वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाता। असमंजस
(3) दूसरे हमारी क्षमता पर विश्वास करें और हमारी सफलता को निश्चित मानें, इसके लिए आवश्यक शर्त यही है कि हमारा अपनी क्षमता और सफलता में अखण्ड विश्वास हो। हमारे भीतर उगा भय, शंका और अधैर्य ऐसे डायनामाइट हैं, जो हमारे प्रति दूसरों के विश्वास को खण्डित कर देते हैं।
शब्दार्थ- क्षमता = योग्यता, सामर्थ्य; अखण्ड = जिसके टुकड़े न हो सकें; उगा = उत्पन्न हुआ, पैदा हुआ शंका = संशय, सन्देह; अधैर्य = अधीरता; डायनामाइट = विस्फोटक पदार्थ; खण्डित कर देते हैं = तोड़ देते हैं, विभाजित कर देते हैं।
सन्दर्भ- पूर्व की तरह।
प्रसंग- लेखक सलाह देता है कि सफलता को प्राप्त करने के लिए हमें अपनी क्षमताओं पर विश्वास करना चाहिए।
व्याख्या- अन्य लोगों के मन में भी यह बात पैदा हो जानी चाहिए कि वे निश्चित रूप से मानने लगें कि हमें अपने उद्देश्य में अवश्य सफलता मिलेगी क्योंकि उन लोगों को भी हमारी क्षमताओं पर पूरा-पूरा विश्वास है। इस सबके लिए एक अनिवार्य शर्त है कि हम अपनी योग्यताओं तथा सफलताओं में पूर्णतः विश्वास करें। परन्तु लेखक का मत है कि हमारे अन्दर पैदा हुआ भय, सन्देह और अधीरता तो अन्य लोगों के विश्वास को तोड़ देती है। ठीक उसी तरह जैसे डायनामाइट किसी भी खान के अन्दर पाये गये खनिज को खण्ड-खण्ड कर डालता है।
(4) "हतोत्साहियों, निराशावादियों, डरपोकों और सदा असफलता का ही मर्सिया पढ़ने वालों के सम्पर्क से दूर रहो।" नीति का वचन है कि जहाँ अपनी, अपने कुल की और अपने देश की निन्दा हो और उसका मुंह तोड़ उत्तर देना सम्भव न हो, तो वहाँ से उठ जाना चाहिए। क्यों ? क्योंकि इसमें आत्मगौरव और आत्मविश्वास की भावना खण्डित होने का भय रहता है।
शब्दार्थ- हतोत्साहियों = जिनका उत्साह समाप्त हो गया है; निराशावादियों = किसी भी आशा से रहित; मर्सिया = शोक-गीत; सम्पर्क से = संगति से; कुल = वंश; निन्दा = बुराई; मुँहतोड़ = प्रश्न करने वाले को ऐसा उत्तर देना जिससे उसकी बोलती बन्द हो जाये; आत्मगौरव = अपने बड़प्पन; भावना = विचार; खण्डित = समाप्त; भय = डर।
सन्दर्भ- पूर्व की तरह।
प्रसंग- लेखक सलाह देता है कि हमें उन लोगों की संगति से बचना चाहिए जो उत्साह से हीन और सब तरह से निराशावादी हैं।
व्याख्या- हमें उन लोगों की संगति नहीं करनी चाहिए जो सभी प्रकार से उत्साह से हीन हैं और सभी प्रकार से आशा छोड़ चुके हैं। साथ ही उन लोगों से भी दूर रहना चाहिए जो भयभीत हैं तथा हमेशा असफल होने के अपने शोक गीत का गान करते रहते हैं अर्थात् बार-बार अपनी असफलताओं का ही जिक्र करते रहते हैं। यह नीतिगत बात है कि हमें वहाँ से चले जाना चाहिए जहाँ पर हमारी स्वयं की, अपने वंश की अथवा अपने राष्ट्र की बुराई की जा रही हो तथा उनके द्वारा कहे जाने वाली किसी भी बात का अथवा पूछे गये प्रश्न का उत्तर हम नहीं देना चाह रहे हों। इसका कारण यह है कि ऐसा करने से (इसका उत्तर देने से) तो हमारे स्वयं के बड़प्पन तथा स्वयं पर किये गये भरोसे की भावना समाप्त हो जाने का डर पैदा हो जाता है।
(5) बहुत से मनुष्य यह सोच-सोचकर कि हमें कभी सफलता नहीं मिलेगी, दैव हमारे विपरीत हैं, अपनी सफलता को अपने ही हाथों पीछे धकेल देते हैं। उनका मानसिक भाव सफलता और विजय के अनुकूल बनता ही नहीं, तो सफलता और विजय कहाँ? यदि हमारा मन शंका और निराशा से भरा है, तो हमारे कामों का परिचय भी निराशाजनक ही होगा, क्योंकि सफलता की, विजय की, उन्नति की कुंजी तो अविचल श्रद्धा ही है।
शब्दार्थ- दैव = भाग्य; विपरीत = खिलाफ, विरुद्ध; पीछे धकेल देते हैं = पिछड़ जाते हैं; मानसिक भाव = मन की इच्छा; अनुकूल = अनुसार, शंका = संशय या सन्देह; निराशा = आशाहीनता; कुंजी = चाबी या उपाय; अविचलन = स्थिर, अडिग; श्रद्धा = विश्वास ।
सन्दर्भ- पूर्व की तरह।
प्रसंग- लेखक का मत है कि सफलता तब ही प्राप्त होती है, जब हमारे अन्दर किसी भी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए अपनी क्षमता में अडिग विश्वास होता है।
व्याख्या- लेखक इस सच्चाई को भी स्पष्ट करते हैं कि कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो यह सोचते हैं कि वे सफलता प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि भाग्य उनके विरुद्ध है। इस तरह की उनकी विचारधारा भी उन्हें सफलता प्राप्त करने में रुकावट डालती है, और वे असफल हो जाते हैं। वे अपनी भावनाओं में भी सफल नहीं हो पाते। उन्हें विजय का मार्ग दीखता ही नहीं। इसका कारण यह है कि वे अपनी सफलता और विजय के विषय में पूर्णतः निराश हो चुके होते हैं। उन्हें अपनी क्षमताओं एवं योग्यताओं पर भरोसा होता ही नहीं। जब उन व्यक्तियों में स्वयं की सामर्थ्य पर सन्देह और संशय होगा, तो उन्हें अपने उद्देश्यों और कामों में भी संशय तथा निराशा की स्थिति ही दीख पड़ेगी। इसका कारण यही है कि जब तक मनुष्य में अपनी सामर्थ्य और शक्तियों के प्रति पक्की श्रद्धा और विश्वास नहीं होगा, तब तक सफलता उससे दूर ही रहेगी। यह स्थिर श्रद्धा (विश्वास) ही सफलता प्राप्त करने का, विपरीत परिस्थितियों पर जीत पाने का तथा उन्नति करने का अचूक उपाय है।
(6) जो लोग हमेशा उतार की ही बात सोचते हैं, वे उन लोगों की तरह हैं जो कूड़ाघरों के पास कुर्सी बिछाकर बैठ जाते हैं और शहर की गन्दगी को गाली देते हैं।
शब्दार्थ- हमेशा = सदा; उतार = गिरावट; गाली = अपशब्द।
सन्दर्भ- पूर्व की तरह।
प्रसंग- लेखक के अनुसार हतोत्साहित और निराश व्यक्ति ही सदा अवनति (कष्ट) की बातें सोचा करते हैं।
व्याख्या- जिन लोगों में किसी उद्देश्य को प्राप्त करने का उत्साह नहीं होता और सदा निराशापूर्ण भावनाओं में ही डूबे रहते हैं, वे जीवन में उतार (अवनति) से प्राप्त दुःख की ही बातें करते रहते हैं। वे कभी भी उन्नति (चढ़ाव) के सुख की बात सोचते ही नहीं। अपने अन्दर की शक्ति और जीवन के लक्ष्य के प्रति श्रद्धा समाप्त कर बैठते हैं। वे कूड़ाघर के अन्दर पड़े कूड़े के समान निम्नकोटि की विचारधारा से युक्त होते हैं। वे अपनी दूषित विचारधारा को संस्कारित नहीं कर सकते। कूड़ेघर की। गन्दगी उस समय ही हटेगी जब गन्दगी को एकत्र करने वाले उसे वहाँ से हटायेंगे। आलसी और कुसंस्कारित व्यक्तियों की निठल्ली बातें (गालियाँ) उनके लिए कभी भी लाभकारी नहीं हो सकेंगी।
(7) "सुख का एक द्वार बन्द होने पर तुरन्त दूसरा द्वार खुल जाता है, लेकिन कई बार हम उस बन्द द्वार की ओर इतनी तल्लीनता से ताकते रहते हैं कि हमारे लिये जो द्वार खोल दिया गया है, हम उसे देख नहीं पाते।"
शब्दार्थ- द्वार = दरवाजा; तल्लीनता = (एकाग्र) भाव से; ताकते रहते हैं = देखते रहते हैं।
सन्दर्भ- पूर्व की तरह।
प्रसंग- प्रस्तुत सूक्ति में बताया गया है कि हम अपनी निराशावादी भावना के कारण अपनी क्षमताओं में विश्वास खो बैठते हैं।
व्याख्या- हेलन केलर की इस सूक्ति का तात्पर्य यह है कि जब सुख देने वाली सफलता हमें एक ही प्रयास में प्राप्त नहीं होती तो हमारा यह कर्त्तव्य हो जाता है कि हम दुबारा भी अपने प्रयास को चालू रखें, परन्तु असफलता के प्रभाव से हम इतने अधिक प्रभावित हो जाते हैं और एकाग्रचित होकर उस विफलता से मानसिक भाव क्षेत्र में भी निराश हो जाते हैं। हमारा उत्साह नष्ट हो जाता है। परन्तु अपने ध्येय के प्रति समर्पित अपनी शक्तियों का विश्वास स्थिर तौर पर बनाये रखें, तो हमें सफलता अवश्य मिल जायेगी। परन्तु अपने उद्देश्य और अपनी क्षमताओं के प्रति दृढ़ श्रद्धा (विश्वास) की कमी के कारण हमें विफलताओं का सामना करना पड़ता है। सफलता हमसे दूर बनी रहती है।
~ कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर'
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